'सांझी ' उतर भारत के गाँव -देहात विशेषकर हरियाणा पंजाब ,दिल्ली राजस्थान मे मनाया जाने वाला सर्दी के नवरात्रौ का त्यौहार !हरियाणी हूँ इसलिए वहाँ के हिसाब से मनाये जाने वाले सांस्कृतिक तरीक़ों को लिखने की कोशिश करूगाँ
आइये बताता हू कि कैसे हरियाणा के गाँव-देहात मे सर्दियों के नवरात्रों के शुरू होने पर मतलब कनागत( श्राद्ध ) के ख़त्म होने के बाद में घरों की दीवारों पर साझी सजाई व बनाई जाती है।साझी को नवरात्रों में नौ दिनों तक माता के नौ रूपों में पूजा जाता है
साझी बनाने के लिए गाय के गोबर में मिट्टी मिलाकर दीवार पर महिला की आकृति बनाई जाती है फिर उस पर चाँद सितारों व अनेक प्रकार की मिट्टी की सज्जा वाली कलाकृति लगाई जाती है जो अकसर सफ़ेदी मे डूबो कर यानी पोत कर बाद मे हल्दी व सिंदूर से गढ़ी जाती है। साझी का एक दुल्हन की तरह ही श्रगार किया जाता है व उसके मुंह को दुल्हन की तरह ही लाल रग के दुपट्टे या कपड़े से ढका जाता है। मतलब घूँघट किया जाता है बिलकुल नयी नवेली दुल्हन की तरह श्रृंगार किया जाता है
वैसे तो ये कुँवारी लड़कियों का त्यौहार है .. मगर जिस घर मे कुँवारी लड़कियाँ नही है तो उस घर की महिलाएँ घरों की दीवारों पर साझी बनाकर हरियाणवी संस्कृति को कायम रखने का प्रयास करती है शहरों मे ग्रामीण परिवेश वाले लोग आज भी यह त्योहार मनाते है बल्कि मेरे संपर्क मे कुछ परिवार ऐसे भी है जो विदेशों मे यह परंपरा क़ायम रख रहे है जिससे उनके बच्चे उनकी इस संस्कृति को भूले नही! वैसे भी हरियाणवी संस्कृति में साझी की अपनी ही एक अहम भूमिका है। साझी माँ दुर्गा की एक कलाकृति है। दोनो बखता ( सुबह -शाम) साझी का पूजा होती है। ए आस्था ये भी है कि बुजुर्गों के बताए कुवारी छोरी (लड़किया )अपने अपने लिए श्रेष्ठ व मनचाहा वर पाने के लिए साझी पूजा करती है। बताते है कि सत युग से यह परंपरा चली आ रही है
आजकल घर की दीवार ख़राब का बहाना बनाकर साझी नही मनाते बहुत सारे परिवार धीरे धीरे शहरीकरण का हवाला देने लगे है वैसे अगर नीयत हो तो पोस्टर पर भी साझी बनी हुई देखी है मेने तो जैसे ब्याह -शादी मे थापे लगाते है ठीक उसी तरह .. ख़ैर सबके अपने अपने विचार अपनी अपनी आस्था व आपने अपने ढकोसलै ..!
याद है मुझे कि साझी सजाने के बाद रोज़ नये पकवानों का भोग लगाती है लड़कियाँ साझी यानी देवी माता को ..जिसमे अपने आप मे एक ख़ास संस्कृतिक आस्था दिखाई पड़ती है यक़ीन मानिए कुछ त्योहार व काम ऐसे होते है जो शब्दों मे बयां ही नही किये जा सकते जो महसूस किये जा सकते है है। नौ दिन तक साझी की पूजा करने के बाद दशहरे के दिन साझी का जोहड या नदी मे विसर्जन कर देते है
.. दुनिया की संस्कृति को अपनाने के लिए घुट रहो हो मगर अपनी छोड़ रहे हो ये कैसा आधुनिक मतलब शहरीकरण ? अपने बच्चों को बताऔ अपनी संस्कृति के बारे मे बताओ मै ये नही कह रहा दूसरी संस्कृति व त्योहार मत मनाऔ मगर उनको अपनाने के चक्कर मे अपने मत भूलो .. "ऐसा करते समय बस एक बार कौवे व मोर वाली कहानी याद कर लेना जिसमें कौवा न कौवा रहा न मोर बन पाया था " साफ़ शब्दों मे ज्ञान की बात ये है तीज-त्योहार बनाऔ अपनी संस्कृति को सँजोए रखो आधुनिकता की होड़ मे इतने मत उलझ जाऔ की अपनी पहचान ही खो दो जय राम जी की
No comments:
Post a Comment